भारतीय गणतंत्र विश्व के लिए एक नमूना है। इसकी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता दुनिया को हैरत में डाल देती हैं। बहुसांस्कृतिक संरचना के कारण पश्चिमी विचारक इसके अस्तित्व पर ही सवाल उठाते रहे हैं। कलकत्ता के पूर्व बिशप “जे.ई वेल्डन” ने 1915 में कहा था कि “जैसे ही आखरी ब्रिटिश सिपाही बंबई या कराची के बंदरगाह से रवाना होगा, हिंदुस्तान परस्पर विरोधी और नस्लीय समूह के लोगों की लड़ाई का अखाड़ा बन जाएगा। इसके साथ ही ग्रेट ब्रिटेन ने धीरे-धीरे, लेकिन जिस ठोस रूप से यहां एक शांतिप्रिय और प्रगतिशील सभ्यता की नींव रखी है, वह रातों रात खत्म हो जाएगी”।
इस वर्ष भारत 73 वां गणतंत्र दिवस मना रहा हैं। जे.ई वेल्डन जैसे लोगों को जवाब मिल चुका है। लेकिन इस गणतंत्र को और बेहतर बनाने के लिए हमें समय-समय पर अपने कानूनों का विश्लेषण करना होगा। नागालैंड के मोन जिले में हुए गोलीकांड के बाद सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम एक बार फिर चर्चा में है। आइए गणतंत्र दिवस की रौशनी में इस कानून का अवलोकन करते हैं।
आजादी के शुरुआती वर्ष की चुनौतियां और अफस्पा की पृष्ठभूमि-
आजादी के शुरुआती दशक में देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखना पहली प्राथमिकता थी। अफस्पा भी इन्हीं जद्दोजहद के बीच अस्तित्व में आया।
पूर्वोत्तर भारत पहाड़ी और घाटियों में बंटा हुआ है। सामान्यतः हर पहाड़ी और घाटियों में अलग-अलग प्रकार की जनजातियां रहती हैं। ऐतिहासिक रूप से इन जनजातियों को एक दुसरे से खतरा रहा हैं। इस कारण हथियार रखना एक सामान्य मनोविज्ञान को दर्शाता है।
अफस्पा की कहानी समझने के लिए हमें इतिहास में 75 साल पहले जाना होगा। यानी आजादी से एक दिन पहले 14 अगस्त सन् 1947 को। इस तारीख को नागा नेशनल काउंसिल(एनएनसी) ने आजादी का ऐलान किया। भारत सरकार ने आजादी के इस घोषणा को खारिज कर दिया। सरकार इस बात पर अडिग थी, कि अंग्रेजों के जाते वक्त जो अंतरराष्ट्रीय सीमा है उससे छेड़छाड़ नहीं होगी। आजादी के बाद कुछ वर्ष शांतिपूर्वक बीते। जब नागा कबीले ने को लगा कि सरकार उनकी बात नहीं मानेगी तो इन लोगों ने उग्रवाद का रास्ता अपना लिया।
नागा कबिलो ने वर्ष 1956 में फेडरल गवर्नमेंट ऑफ नागालैंड” (एफजीएन) नाम से समानांतर सरकार का गठन किया। अपने सेना का नाम नागा आर्मी रखा। एफजीएन ने उगाही के पैसे से सरकार चलाना शुरू कर दिया। कई छिटपुट हिंसा की घटनाएं होती रहीं। पानी सिर से ऊपर तब चल गया जब इन लोगों ने भारतीय सेना के कैंप पर कब्जा कर लिया। इस घटना के बाद वर्ष 1958 में केंद्र सरकार ने “सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम” लागू करने का निर्णय लिया। इस कानून के तहत सुरक्षा बल संदेह होने पर किसी की भी तलाशी ले सकते है। किसी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार किया जा सकता है। सैन्य ऑपरेशन के दौरान किसी व्यक्ति की मौत हो जाती तो इसकी जवाबदेही सेना की नहीं होगी। इस कानून के प्रभाव में आने के बाद विद्रोह खत्म होने की जगह और बढ़ गया।
कई समितियां भी बनी समय-समय पर सवाल भी उठे-
वर्ष 2004 में असम राइफल्स की हिरासत में एक महिला की मौत हो जाती है। इस घटना का व्यापक विरोध होता है। इसके बाद तत्कालीन केंद्र सरकार नींद से जागती है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी.पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
वर्ष 2005 में इस समिति ने रिपोर्ट सौंपा। दमन, घृणा और शोषण का प्रतीक मानते हुए इस कानून को निरस्त करने की अनुशंसा की। सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया । दूसरे प्रशासनिक आयोग की 5वीं रिपोर्ट में भी अफस्पा को निरस्त करने की सिफारिश की गई। वर्ष 2012 में गठित जे.एस कमेटी ने भी अफस्पा कानून की समीक्षा पर जोर दिया। इसी वर्ष जस्टिस संतोष हेगड़े समिति की रिपोर्ट आई। इस रिपोर्ट में अफस्पा कानून की आड़ में निर्दोष लोगों को मारने की बात कही गई।
वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र के क्रिस्टोपस हेंस ने भारत से आग्रह किया था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अफस्पा जैसे कानून का कोई स्थान नहीं होना चाहिए लिहाजा इसे रद्द कर दिया जाएं। वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इसके औचित्य पर सवाल उठाते हुए ने कहा कि सशस्त्र बल अशांत क्षेत्रों में भी अपने कर्तव्य के निर्वहन के दौरान होने वाली ज्यादतियों की जांच से नहीं बच सकते हैं।
कानून के पक्ष में तर्क-
8 जुलाई वर्ष 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के तहत सैन्य बलों को दी जाने वाली विशेष सुरक्षा अधिकारों को रद्द कर दिया था। इसके जवाब में सरकार ने तर्क दिया कि अगर ऐसा हुआ तो अशांत क्षेत्रों में कानून व्यवस्था बनाए रखना असंभव हो जाएगा।
सेना को हथियारों से लैस उग्रवादियों से मुकाबला करना होता है। इस मुकाबला के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल किया जाना आवश्यक है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि सेना जब आतंकियों से लड़ाई लड़ रही हो और उसे एफआईआर का भय रहे तो यह लड़ाई लड़ना संभव नहीं हो सकेगा। इस कारण ऑपरेशन के दौरान सेना द्वारा की गई कार्रवाई को न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता है। देश की एकता अखंडता बनाए रखने में इस कानून ने अहम भूमिका निभाई है।
रक्षा विशेषज्ञ मेजर जनरल शशि भूषण अस्थाना कहते है कि “इस कानून को हटा लेने के बाद हमारी सेना कैंप से निकलने से इनकार कर देती हैं तो आप क्या करोगे ? इस तरह की सोच से बचने के लिए हमें जवानों को सुरक्षा का अहसास देना होगा। जहां जरूरत नहीं होता है सेना खुद बोल देती हैं कि इस कानून को हटा लिया जाए”।
वर्तमान स्थिति-
वर्तमान में, ये कानून जम्मू-कश्मीर के अलावा नागालैंड, असम, मणिपुर (राजधानी इंफाल के सात विधानसभा क्षेत्रों को छोड़कर) और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में लागू हैं। एक समय अफस्पा अरुणाचल प्रदेश,असम,त्रिपुरा,मणिपुर ,मेघालय ,मिजोरम और नागालैंड के अलावा जम्मू-कश्मीर और पंजाब में भी लागू किया गया था। समय-समय पर इस कानून को कई जगहों से हटाया भी गया हैं।
कानून की प्रासंगिकता-
एक गतिशील गणतंत्र के लिए कानूनों की समीक्षा करना बेहद आवश्यक होता है। इस कानून की प्रासंगिकता को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे इलाकों में यह कानून काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। आंतरिक अशांत क्षेत्रों में इस कानून को शिथिल करने पर विचार किया जा सकता है। नक्सलवाद जैसी समस्या का सामना हमारे जवान बिना अफस्पा जैसे कानून के करते है तो इन उग्रवादियों से निपटने में क्या दिक्कत आ रही है। अगर ऐसा होता हो तो हमारे गणतंत्र की खूबसूरती उभर कर सामने आएगी और सेना का भी आत्म गौरव बढ़ेगा।
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